28 IndL 4514.41 Goldsmith. The hermit. 1886 Ind L 4514.41 VEL BO TAS HARVARD COLLEGE LIBRARY ०४४९ষ৬৮४ ---- 905003036-4 6- - - 250000887 एकान्तवासो योगी एक प्रेम कहानों जिसे हिन्दी और अंगरेज़ी रसिकों के आनन्द के लिये पण्डित श्रीधर पाठक ने अंगरेजो से खड़ी हिन्दी के पढ्य में उल्था किया "जिहि कर जिहि पर सत्य सन ह सो तिहि मिलहि न कछु सन्देह" THE HERMIT. BY GOLDSMITH. श्रीतुलसीदास Translated into Hindi Verse BY PANDIT SRIDHARA PATHAKA. ALLAHABAD -- (All Rights Reserved.) देशोपकारक यंत्रालय, प्रयाग में मुन्शीबच - राम मेनेजर के प्रबन्ध से छापा गया १९५० v-op-900-00-00- ই৩ই এই এই25 erase :-01-09 0000) 2008-0 PARFERANF TRANS प्रथम संस्करण ५०० } { मूल्य ॥ hd L 45-14:41 ✓ Harvard University Sanstrit Dept. Library; Gist of FITZELWARD HALL, July 17, 189T.. HARVARD UNIVERSITY LIBRARY DEDICATED ΤΟ RAJA RAMPAL SINGH KALAKANKAR (PARTABGARH, OUHD.) FOR HIS ZEALOUS INTEREST In the cultivation of Hindi Literature. A Jo J.. PREFACE. The story presented to the public in these pages is a translation of Goldsmith's well-known poem.-" The Hermit.” Two lovers, long separated and lost to each other, quite Pro- videntially come to meet at last never to part again. The simplicity of style and tone of the original is be- witchinly striking, and that is, perhaps, what has made the love-tale so much admired in the country where it was first produced. But a translation, and that too, like the present, into a language which can but inadequately express English ideas and customs (just the difficulty almost equally experienced by any two alien tongues similarly circumstanced) cannot fairly claim equality with the original either in beanty of style or elegance of expression. However, all that lay in my small power has been exerted to make the Hindi rendering as satisfactory as possible; the numerous additions to, and the few slight deviations from, the Poet's original ideas, which will be found in the body of the translation, being introduced only to render more interest- ing and indeed more intelligible to the purely Hindi-knowing reader a foreign tale which, without them, would have but little or no charm for him. ALLAHBAD: λ January, 1886. S. D. PATHAKA. भेट हिन्दी के प्रेमी पाठक, यह एक प्रेम कहानी आज आप को भेट की जाती है— निस्मन्देह इस्में ऐसा तो कुछ भी नहीँ जिस्से यह आपको एक ही बार में अपना सके, अथवा आपके इस नित्यनवीन रसान्वेषी मना मधुप को सहज ही में लुभा सके । केवल दो प्रेमियों के प्रेम का निर्वाह मात्र है - पर हम का और का चाहिये ? हम, तुम भी तो एक हिन्दी के प्रेमी हैं बस यहीं सम्बन्ध इस भेट के लिये बहुत है - हमारे इस प्रेम का भी तो निर्वाह किसी प्रकार उचित था - आज योंही सही । प्रयाग पौष सम्बत १६४२ आप का सदा का दास अनुवादक श्रीः जंम श्रीः 、 एकान्तवासी योगी “सुनिये झाड़खंड बनबासी, दया शील हे वैरागी करके कृपा बता दे मुझ को कहां जले है वह आगी* मैं भटका फिरता हूं' बन में, भल गया हूं राह त जो मुझे वहां पहुंचा दे यह गुण होय अथाह ܬ निपट अकेला, भ्रान्तचित्त? अतिथकित, मंदगति फिरता हू विकट असौम, महाजङ्गल में परिभ्रमण २ मैं करता हू ज्यों ज्योँ आग़ धरता हूं पग, अन्तरहित यह देश बढ ताही जाता है प्रतिपद ३ दीर्घ विशेष विशेष" " वहां न जाना पुत्र कहीँ" यों बोला सुनकर वैरागी "करनान हिंविश्वासकभौ, वह केवल भ्रम की है आगो* वहां जो दोखे है तुझ को, यह उज्ज्वल अधिक प्रकाश झठ मूठ बहकाय करेगा निश्चय तेरा नाश *जिनको रात के समय जङ्गल में होकर यात्रा करने का काम पड़ा है उन्हों ने दलदली भमि में अपने मार्ग से १ भटका हुआ- २ चक्कर ३ पद पद पर ( २ ) “यहाँ इमो जङ्गल में मेरा बना हुआ है दोन कुटीर जहांसदाग्गृहरहितपथिकका रहैनिवेदित दल, फल, नौर यद्यपि थोड़ी ही सामग्री, नहीँ प्रचुर भण्डार अर्पित होय भक्ति श्रद्धायुत, यह मेरा परिचार १ “ आज रात इस से परदेशी, चल की बिश्राम यहीँ जो कुछ वस्तु कुटी में मेरी, करो ग्रहण संकोच नहीँ तण शय्या और अल्प रसोई, पाओ खल्प प्रसाद पैर पसार करो निद्रा, लो मेरा आशीर्बाद ● " इस पर्वत की रम्य तटी में, मैं खच्छन्द विचरताहूं परमेश्वर की दया देख के, पशुहिंसा से डरता हूं गिरिवर ऊपर को हरियाली, झरना जल निर्दोष कन्द मूल,फल, फूल, इन्हीँ से करू' क्षुधा सन्तोष कुछ दूर पर आग सी जलती हुई प्रायः अवश्य देखी होगी भ्रान्त पथिकों को इंस आगसे बहुत धोखा होजाता है वे लोग यह समझ कर कि यह उजाला अवश्य किसी गांव या ऐसे स्थान में होरहा है जहां कि मनुषय रहते होंगे उसी की ओर को चल जाते हैं परन्तु ज्यों २ वे आगे बढ़ते हैं यह बिश्वास घातक प्रकाश उन्से दूर ही दूर हटता जाता है- यों वे बेचारे बटोही उस्का पीछा कर, सवन अगम्य दलदलों में फंस अपने प्राणों से हाथ धो बैठते हैं-गामीण लोग इस आग से भूतों का अनुभव करते हैं, परन्तु बास्तव में यह हाइड्रोजन अर्थात् जलकर बायु का, जिस्की कि जलप्राय प्रदेशमें स्वाभाविक १ सत्कार (=) “सा हे चतुर सुजान बटोही, चिन्ता तज त हाय मगन व्यर्थ जगतकामोह समझके, तनमन कर भगवत अपन यह असार संसार, अपेक्षा नर को इस में अल्प तिस्पर भौ वे अल्प अपेक्षा, रहैँ समय अतिस्वल्प ओस बूंद ज्योंगिरे व्योम१से, कोमलनिर्मलसुखकारी ये मृदुल बचन योगी के, लगे पथिक का दुखहारी नम्र भाव से कोनो उस्ने विनय समेत प्रणाम चला साथ योगी के हर्षित, जहं उस्का विश्राम बहुत दूर एक झाड़खंड में गुप्तठौर अज्ञात नितान्त बनी पर्णशाला योगी की, साधारण अत्यन्त दूकान्त जहां शरण पावें सङ्कट में दुखिया, दीन, अनाथ मान होय भूले भटके का, अति श्रद्धा के साथ नहीँ बड़ा भंडार मढ़ी में, कौज जिस्की रखवाली द्वार एक छोटा सा त गमय, अभय कुटी शोभाशाली २ इस टट्टी में लगी चटखनी, दी योगी ने खोल दोनों जीव पधारे भीतर, जिन्के चरित अमेाल अधिकता होती है, एक रूप बिशेष है-इसी प्रकार की आग से भटक कर इस कहानी का सुग्ध पथिक बनबासी बैरागी से उस्का मार्ग पूछ रहा है ॥ १ आकाश २ शोभा से भरी हुई (8) दिन के श्रम से था जिस समय जगत चैन से सोता है यहाँ उटज १ के बीच उससमय, अतिथिसमादर होता है निशा काल, अतिशय अंधियारा, छाय रहा सुनसान झिल्ली शब्द, शृगालरूदन २ बन भूमि, पड़ोस मसान परम निपुण पंडित वैरागी, भट पट आग जलाता है सोच भरे पाहुने पथिक के मन को मुदित कराता है तृणमय एक चटाई, उस्पर दिया पथिक बैठाल अपने लिये मंज का आसन लिया पास ही डाल सागपातमय मृदुल रसोई, उस्को शीघ्र परसता है. " कुछ सङ्कोच न करना" कहके, मुस्काता और हंसता है पूर्व काल की कथा कहानी अद्भुत उसे सुनाय मन बहलाने लगा पथिक का, करके विविध उपाय धनी तपे, आग की ज्वाला, चञ्चल शिखा झलकती है ܬ उडता फुं अं, शुक ई' धन की लकड़ी तथा चटकती है करें मंगन हो मार्जारौसुत ३ क्रीड़ा खेल कलोल अही परम आनन्द सदन, यह सुन्दर दृश्य अमोल ! १ कुटीर २ गीदड़ का रोना ३ बिल्ली का बच्चा ( ५ ) इससमस्त परिचर्या ? ने, नहिं दियापथिकका कुछ आनन्द प्रवलदुःखसेथाउस्कामनव्यथित मलिन. पीडित औरमन्द उदासीनमुख, शोकयुक्त अति पतित पलक भाल भूदृगदृष्टि शिथिल तन दुर्बल, ज्योँनव शुष्कमृणाल ܬ गढ़गढ़ कंठ, हृदय भर आया, लौ उसास उसने भारौ नेत्रों से फिर अश्रुपात को एकसाथ बंधगई धारी बहै अनर्गल अश्रुधार यह, ज्यों पावस का मेह आर्द्र २ कपाल, चिब क, वक्षस्थल, सजल हुई सबदेह चतुर, बहुत, विज्ञ वैरागी उस्की दशा निरखता है. कोमल, मृदुल, मिष्ठ बाणौ से दुख का हेतु परखता है उसौ ब्यथा हे परिपौड़ित, यह बनखंडौ आप देख चुका है दुःख जगत के, तथा विविध सन्ताप в "कों यह दुःख तुर्झ परदेशी ? ” लगा पूछने बरागी “किस कारण से भरा हृदय, का व्यथा तेरेमनकोलागौ ? असौभाग्य बश छटं गया घर मन्दिर सुख आवास३ निस्के मिलने की तुझ को अब, रही न कुछ भी आस ? १ शिष्टाचार-२गीले भीगे हुए ३ निवासस्थान, घर ( ६ ) "निज लोगों से बिकुर अकेला, उन्की सुध में रोता है? करकर सोच उन्हीँ का, फिर फिर तन आंसू से धोता? या मैत्री का लिया बुरा फल, छल से वञ्चिताय दिया पराये अर्थ ब्यर्थ को सर्वस अपना खोय ? "नव यौवन के सुवासलिल में का विषविन्दुमिलाया अपनी सौख्य बाटिका में, कया कंटक वृक्ष लगाया है? अथवा तेरे अमित दुःख का केवल कारण प्रेम होना कठिन निवाह जगत में जिस्का दुर्घट नेम 2 1) ''महा तुच्छ सांसारिक सुख जो धन के बल से मिलता है काच समान समझिये इस्को पल भर में सब गलता है , जो इस नश्यमान धन सुख को खोज है मतिमूढ. उस्क्रौ तुल्य धरातल ऊपर, है नहिं कोई कूट. “उसी भांति सांसारिक मंत्री, केवल एक कहानी है नाम मात्र से अधिक आज तक, नहीँ किसी ने जानी है जब तक धन, सम्पदा, प्रतिष्ठा, अथवा यश विख्याति तब तक सभी मित्र, शुभचिन्तक, निज कुल बान्धवज्ञाति ( ७ ) " अपना स्वार्थ सिद्ध करने का, जगत मित्र बन जाता है किन्तु काम पड़ने पर, कोई कभी काम नहिं आता है भरे बहुत से इस पृथ्वी पर पापी, कुटिल, कृत इसौ एक कारण से उस्पर, उठें अनेकों विघ ! १ " जो त प्रेम पन्थ में पड़कर, मनको दुख पहुंचाता है तो है निपट अजान, अज्ञ, निज जीवन व्यर्थ गंवाता है कुत्सित २, कुटिल, क्रूर पृथ्वी पर कहां प्रेम का बास ? अरे मख', आकाश पुष्पवत, झ ठौ उस्को आस ܬ “जोक छ प्रेम अ'श पृथ्वी पर जब तब पाया जाता है सो सब शुद्ध कपोतों ही के कुल में आदर पाता है धन वैभव आदिक से भी, यह थोथा ३ प्रमबिचार वृथा मोह अज्ञान जनित, सब तत्व शून्य निस्सार ! “ बड़ी लाज है युवा पुरुष, नहिं इस्में तेरी शोभा है तज तरुणी का ध्यान, मान,मन जिस्पर तेरा लोभा है' इतना कहतेही योगी के, हुआ पथिक कुछ और लाज सहित संकोच भाव सा, आया मुख पर दौर १ उपकार न मानने वाले - २ खोटी, बरी ३ साररहित · ८ ( - ) अतिआश्चर्य दृश्य योगी को वहां दृष्टि अब आता है परम ललित लावण्य रूपनिधि, पथिक प्रगट बनजाता है ज्यां प्रभात अरुणोदयवेला १ विमलवर्ण आकाश त्योंही गुप्तबटोहौ की छवि, क्रम,क्रम हुई प्रकाश नीचे नेत्र, उच्च वक्षस्थल, रूप कटा फैलाता है नशन : दर्शक के मनपर, निज अधिकार जमाता है इस चरित्र से वैरागी को हुआ ज्ञान तत्काल “नहीँ पुरुष यह पथिक विलक्षण, किन्तु सुन्दरीबाल ! “क्षमा हे।य अपराधसाधु वर, हे दयालु सद् गुणराशी भाग्य होन, एक दोन विरहिनी है यथार्थ में यहदासी किया अशुचि आकर मैंने, यह आश्रम परम पुनीत " सिर नवाय, करजोड़, दुःखिनौ बोली बचन विनीत “शोचनीय ममदशा, कथा मैं कहूं आप सो सुन लौज प्रेम व्यथिन अबला पर अपनी दया दृष्टि योगी कौज केवल प्रेम प्रेरणा के बश, कोड़ा अपना गेह धारण किया प्राणपति के हित, पुरुष वेश निज देह १ सरज निकलने के पहले का समय जिसे 'पौली फटी' कहते हैं ( 1 ) "टाइन नदी के रम्यतौर पर, भूमि मनोहर हरियाली लटकरहीँ, करहीँ, जहां द्र मलता, कुऐ जलसे डाली चिपटा हुआ उसी के तट से, उज्ज्वल उच्च विशाल शोभित है एक महल बाग में, आगे है एक ताल , ૧ “उस समग्र ' बन भवन, बाग का मेरा बापही खामी था धर्मशील, सत्कर्मनिष्ठ २, वह ज मौंदार एक नामी था बड़ा धनाढा, उदार, महाशय, दौन दरिद्र सहाय कृषि कारों का प्रेमपात्र, संबविधि सद् गुणसमुदाय ३ d “मेरो बाल्य अवस्था ही में, मानेकिया स्वर्ग प्रस्थान ४ रही अकेली साथ पिताके, थी मैं उस्की जीवन प्रान बड़े स्नेह से उस्ने मुझ को पाला पोसा आप सब कन्याओं को परमेश्वर देवे ऐसा बाप 66 “दो घंटे तक मुझे नित्य वह अमसे आप पढ़ता था विद्या विषयक विविध चातुरी, नित्यनई सिखलाता था करू कहां तक वर्णन उस्की अतुल दया का भाव हुआ न होगा किसी पिता का ऐसा मृदुल स्वभाव १ सब - २ अच्छे कामेा में जो लगारहे अच्छे गुणों से भरा त्रा ४ परलोकगमन - ( १० ) "मैं ही एक वालिका, उस्के सत्कु ल में जीवित थौशेष इस्से स्वत्व' बाप के धनका, प्राण्य २ मुझौ कोथानिश्शेष३ था यथार्थ में गोह हमारा, सब प्रकार सम्पन्न ईश्वर तुल्य पिता के सन्मुख, थी मैं पूर्ण प्रसन्न “हमजोली की सखियोंकेस'ग पढ नेलिखने का आनन्द परम प्रौति युत प्यार परस्पर, सबविधिसदा सुखीखच्छन्द सुखही सुखमें बीता मेरा बचपन का सब काल और उसी निश्चिन्त दशा में लगी सोलवौँ साल " पिता की गोदी में से अलगाने के अभिलाषी आने लगे अनेक युवक अब, दूर दूर तक के वासी भांति भांति से करें प्रगट, वह अपने मन का भाव बार बार दरसाय बुद्धि, विद्या, कुल, शील, खभाव " पूर्ण रूप से मोहित मुझ पर अपना चित्त जनाते थ उपमा सहित रूप मेरे की, विविध बड़ाई गाते थे नित्य नित्य बहुमूल्य बस्तुओं के नवीन उपहार ४ लाकर धरै करे सुष ५, युवक अनेकप्रकार १ अधिकार - २ मिलन योग्य - ३ सम्पूर्ण ४ भेट-नज र ५ख़ शामद- ( ११ ) "उन्मे एक कुमार एडविन, प्रमी, प्रति दिन आताथा वय किशोर, सुन्दर सरूप, मन जिस्का देख लुभाताथा वार था वह मेरे ऊपर तन मन सर्वम प्रान किन्तु मनोरथ अपना उस्ने, कभी प्रकाश कियान "साधारण अति रहन सहन, मृदु बाल हृदय हरने वाला मधुर मधुर मुस्कान मनोहर, मनुज वंशका उजियाला सभ्य, सुजन, सत्कर्मपरायण, सौम्य, सुशील, सुजान शुद्ध चरित्र, उदारप्रकृति शुभ, विद्यात्र वि निधान "नहीं विभव कुछधनधरतौका, न अधिकारको ईउस्कोथा गुणही थे केवल उस्काधन, सेा धन सारा मुझको या उस अलभ्य धनके पाने को थे नहिं मेरे भाग ड्रा धिक् व्यर्थ प्राणधारण, धिक् जीवन का अनुराग ! " प्राणपियारे की गुण गाथा, माधु कहांतक मैं गाऊ जाते गाते चुके नहीं वह चाहो मैंही चुकजाऊ' विश्वनिकाई विधि ने उसमें की एकत्र बटोर बलिहारी त्रिभुवन धन, उस्पर वारौं काम करोर 7 १ सत्कर्म निष्ठ । ( १२ ) “ मूरत उस्की बसी हृदय में अबतक मुझे जिलाती है फिर भी मिलने की दृढ़. आशा, धीरजअभीब' धाती है करती हूं' दिन रात उसी का आराधन और ध्यान वाही मेरा इष्टदेव' है, वोही जीवन प्रान "जब वह मेरे साथ टहलने शैलतटौर में जाता था अपनी अमृतमयी वाणी से प्रेम सुधा बरसाता था उस्के खरसे होजाता था बनस्थली ३ का ठाम सौरभ मिलित ४, सुरस रवपूरित५, सुरकानन ६, सुखधाम “उस्के मनकी मुघराई की उपमा उचित कहां पाऊ मुकुलितनवलकुसुमकलिकासम कहते फिर फिर सकुचाऊ यद्यपि सविन्दु अति उज्ज्वल, मुक्ता विमल अनूप किन्तु एक परमाणुमात्र भी नहिं उस्के अनुरूप “तरुपरफूल,कमलपर जलकण१०, सुन्दर परम सुहाते हैं अल्प काल के बीच किन्तु वे कुम्हलाकर मिटजाते हैं उन्कौ उस्मे' रहौ माहनो११, पर मुझको धिक्कार ! केवल एक क्षणिकता १२ मुझ में, थी उनके अनुसार १सबसे अधिक पूज्य देवता; पर्बत तटी, घाटी; ३वन भूमि ४सुगंध मिला हुआ; ५मधुर शब्द से भरा हुआ; ६ देवताओं का बाग, नन्दन बन; ७ खिलती हुई नई कली के तुल्य ८ तिल भर भी; तुल्य; १० जलबिन्दु; ११ कवि, सुन्दरता; १२ एक अवस्था में थोड़ी ही देर तक रहने की प्रकृति । ( १३ ) “कयोंकि, रूप के अहंकार में हुई चपल, चञ्चलऔरटीठ प्रेम परीक्षा करने को मैं उस्को लगी दिखाने पौठ atter में यद्यपि उस्पर तन मन से आसक्त किन्तु बनाय लिया ऊपर से रूखा रूप विरक्त “पहु'चा उसे खेद इस्से अति, हुआ दुखित अत्यन्त उदास तजदी अपने मनमें उस्ने मेरे मिलने की सब आस मैं यह दशा देखने परभौ, ऐसी हुई कठोर करने लगी अधिक रूखापन दिन दिन उस्की ओर "होकर निपट निरास अन्तको चलागया वह बेचारा अपने उस अनुचित घमंड का फल मैंने पाया सारा एकाकी १ में जाकर उस्ने, ताड़ जगत से नेह धोकर हाथ प्रीति मेरीसे, त्याग दिया निज देह " किन्तु प्रमनिधि, प्राणनाथ का भल नहीँ मैं जाऊ' गी प्राणदान के द्वारा उस्का ऋण मैं आप चुकाऊंगी उस एकान्त ठौर का मैं अब ठढहू दिन रैन दुख की आग बुझाय जहां पर द´ इस मन को चैन १ अकेले में । ( १४ ) " जाकर वहां जगत को मैं भी उसी भांति बिसराज गौ देह गेह को देय तिलाञ्जलि, प्रिय से प्रीति निभाऊ गौ मेरे लिये एडविन ने ज्यों किया प्रीति का नेम में भी शीघ्र करूंगी परिचित, अपना प्रेम" "करे नहीँ परमेश्वर ऐसा " बोला झट पट बेरागी लिया गले लिपटाय उसे, पर वह क्रोधित होने लागी था परन्तु यह बनका योगी वही एडविन आप | आयुर बिताये था जङ्गल में, भल जगत सन्ताप 6 "सेरौ जीवन मूर३, प्रानधन, अहो अंजलेना प्यारी"। बोला उत्कंठिन४ होकर वह “अह प्रीतिजग से न्या इतने दिन का बिकुरा तेरा वही एडविन आज मिला प्रिये तुझ को मैं, मेरे हुए सिद्द सब काज “धन्यवाद ईश्वर को देकर वार वार बलिबलि जाऊं तुझ को गले लगाकर प्यासे निज जीवन का फलपाऊं कर दोज अब सब चिन्ता का इसी घड़ी से त्याग तू यह अपना पथिक वेश तज, मैं छोड़ वैराग . १ साबित अवस्था, उम्र, ३जीवन की जड़-सजीवनी ४ उक्काह 'में' आकर | ( १५ ) “यारी तुझे छोड़कर मैं अब कभी कहा नहिं जाऊंगा तेरीहौ सेवा में अपना जीवन शेष बिताऊंगा गाऊंगा तब नाम अहर्निश १, पाऊंगा सुखदान तुही एक मेरा सर्वस धन, तन मन जीवन प्रान "इस मुहूर्त २ से प्रिये, नहीँ अब पलभरभी होंगे न्यारे जिन वित्र से था विक्रोड यह, सो अबदर हुए सारे यद्यपि भिन्न शरीर हमारे, हृदय प्रान मन एक परमेश्वर की अतुल कृपा से निभी हमारी टक" योगी को अब उस रमणौ ने भुजभर किया प्रेम आलिंग गद गढ़बोल, वारिपूरितद ग. उमगितमन, पुलकित सब अङ्ग बार बार आलिंगित दोनों, करें प्रेम रस पान एक एक की ओर निहारे वारेतन मन प्रान ! परम प्रशस्य अही प्रमौ ये, कठिन प्रम इनने साधा इप्त अनन्यतासहित धन्य, अपने प्यारे को आराधा प्रियवियोग परितापित ६ होकर, दिया सभी कुछ त्याग बनवन फिरना लिया एकने, द जे ने बौराग ! १ रातदिन; २घड़ी से; ३ प्रशंसा योग्य; ४ दूसरे का ध्यान छोड़कर,; ५ आराधन किया; ६प्यारे के विछोह से दुखित होकर । ( १६ ) धन्य अंजलेना तेरा व्रत, धन्य एडविन का यह नेम | धन्यधन्ययह मनादमन१,औरधन्य अटलउन्कायहप्र में ! रहो निरन्तर साथ परस्पर, भोगा सुख आनन्द जगज ग जियो जुगल जोड़ी,मिल पियो प्रम मकरन्द२ इति १ मन का मारना; २ प्रेम रूपी पुष्प का रस । श्रीधर पाठक कृत और पुस्तकें मूल्य डाक में १. मनोविनोद- प्राकृतिक शोभा पूर्ण ललित काव्य २. बालभगोल - ( नक्शा सहित ) प्रथम भाग दष्टान्त हारावली घनदिग्विजय भारत प्रशंसा अभी कपी नहीं मिलने का पता =" अथवा न नौताल श्रीधर पाठक अहियापुर, प्रयाग う ​सूचना – जो ग्राहक “ मनोविनोद, “बालभ गोल' और "एकान्तवासी योगी" तीनों एक साथ लेंगे उन्हें एक पुस्तक बिना मूल्य दी जायगी — और भी कई एक रोचक और उपकारक विषय मुद्रित कराने की हमारी इच्छा है - परन्तु खेद यह है कि हिन्दी पुस्तकों के ग्राहक और पाठक प० उ० में (अर्थात उसी देश a में जहां को कि हिन्दो ठेठ भाषा है) इतने कम हैं और जो हैं वे ऐसे उत्साह शून्य हैं कि हिन्दी लेखकों का अनेक प्रकार के लेख समय २ पर प्रकाश करने का एका एक माहम नहीं पड़ता, क्योंकि उन बेचारों को अपने परिश्रम के प्रति फल में द्रव्य लाभ को दूर रख, छपाई तक आजाने की भी पक्की आशा सर्वदा नहीँ हो सक्ती – १० मे से ६ को गांठ से ही सब भार सहना पड़ता है— बङ्गाली, मरहठी आदि को देखिये जिन्के कि तुच्छ और सड़ लेखों के भो ग्राहकों का अन्त नहीँ मिलता - परन्तु यह सब उन प्रान्तों के सर्ब सम्पन्न शिक्षित समाज के प्रशंसनीय प्रयत्नों का फल है - और हम मनाते हैं कि इस देश की सुशिक्षित मंडली भी अपनी निज भाषा को वैसीही उन्नत दशा पर शीघ्रही पहुंचा देने का कारण होवे । गुन्थकार की स्वाक्षरित आता बिना इस पुस्तक के छापने का अधिकार किसी को नहीं ॥ IndL 4514.41 Widener Library 003239388 3 2044 092 196 302